Tuesday, July 19, 2011

ग़ज़ल

मेरी आँखे इस तरहा नमकीन सा तू कर गया
कुछ तो हूँ  जिंदा मगर थोडा कही मैं मर गया

इस कदर में तेज़ भागा वक्त की रफ़्तार से
मुड़ के देखा वक्त मेरा दूर पीछे रह गया

ढूंढता रहेता हूँ मुजको मैं ही अपने आपमें
कोई मुजको ये बता दे मैं कहाँ पर खो गया

गम नहीं मुजको मेरे मरने का बस इस बात पर,
इस बहाने दर्द सारा  मेरे दिल का तो गया

क्या किया तुने फ़तेह मुजको सिकंदर ए बता
गर तेरे अंजाम में तू बेवतन सा रह गया

ऐश शेखों  को यहाँ क़ाज़ी तेरे इन्साफ में
और कही पर भूखा नंगा कोई बचपन मर गया

यूँ न होती बेरहम दुनिया तेरे आगोश में
लगता तू  चादर तानकर इश्वर कहीं पर सो गया

जिंदगी भर मैंने दफनाये मेरे अरमान को
फर्क क्या पड़ता है गर मैं खुद दफ़न सा हो गया


क्यों करू खुद पर यकीं 'सौरभ' मुझे तू ये बता
छोड़कर बेहाल मुजको मेरा साया भी गया


--सौरभ जोषी

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